सभी दुःखों की जननी है आसक्ति

News Desk/The Headline today: विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ २-५९॥ श्रीमद भगवद गीता के दूसरे अध्याय में कहे गये यह श्लोक में ‘श्री हरी’, अर्जुन की जिज्ञासा के उत्तर में उसे यह कहते हैं की, इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उसमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। अंततः परमात्मा का साक्षात्कार करनेके पश्चात इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की आसक्ति निवृत्त हो जाती है। यह व्याख्या हमारे जीवन के लिए अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे हमें यह सिख मिलती हैं की काया से कोई भी कड़ा तप तो किया जा सकता है, पर यदि मन विविध प्रकार के विषयों में आसक्त है, तो वह तप भी निरर्थक है। स्मरण रहे ! जहाँ आसक्ति है वहाँ शक्ति नष्ट हो जाती है और शक्ति नष्ट होने से आसक्ति और ज्यादा बढ़ जाती है। आसक्ति की अवस्था में तन किसी अन्य स्थान पर होते भी, मन उस वस्तु विशेष के चारों तरफ मंडराता रहता है | उस वस्तु, व्यक्ति या वातावरण के प्रति लगाव, उसके प्रति प्रशंसा का भाव, उसे प्राप्त करने या समीप जाने की तमन्ना बनी रहती है। तन से यदि न पा सके तो मन के संकल्पों से उसे छूकर, बुध्दि रूपी नेत्रों से उसे देखकर वह कुछ सीमा तक अपनी इच्छा पूर्ण होने का सुकून पाता है। इसमें तकलीफ भी होती है और नुकसान भी, क्योंकि जिन चीज़ों पर व्यक्ति आसक्त है, वे भूत बनकर उसे नचाती रहती हैं। शुरू में तो यह नाचना कुछ अच्छा लगता है पर यह सारे खेल में जब आत्म-सम्मान, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास जैसे सब सद्गुण ऐसी आसक्ति की भेंट चढ़ जाते हैं तब उस इंसान को यह समझ आती हैं की इस पागलपन के पीछे मैंने क्या क्या खो दिया | इसलिए ही परमात्मा बार बार यह कहते है की , “युक्त आसीत मत्परः “ मन्मनाभव मद्भक्तों” | यदि हम अपने मन को किसी रचनात्मक-उच्च लक्ष्य के साथ जोड़ दें और प्रबल इच्छाशक्ति के साथ यह कार्य करे, तो हम अपनी इंद्रियों पर काबू पा सकते है। हमें यह तथ्य को भली भांति समझना चहिये की चमड़ी दूसरे की हो या अपनी, यह तो हाड़-माँस पर चढ़ा हुआ सुन्दर आवरण है। अतः आचरण को परखे बिना केवल आवरण पर नज़रें अटकाना तो स्वयं ही स्वयं को भटकाने और अटकाने के समान है, अतः समझदारी उसीमे हैं की हम स्थूल शरीर से उपर उठ चैतन्य सत्ता आत्मा की और अपना ध्यान केन्द्रित करें |

ऐसा माना जाता है की मनुष्य की महानता उसकी विवेक शक्ति में ही है। और इसीलिए उसके विकास का और पशुओं से उसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण उसकी विवेक शक्ति अर्थात् बुद्धि है | अतः यदि मनुष्य अपना अंतःकरण अपने अधीन कर ले और अपनी विवेक-बुद्धि से काम लेकर आसक्ति से दूर रहकर प्रत्येक कर्म करता रहे, तो उसके सभी दुःख समाप्त हो जायेंगे और उसकी बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो सकेगी| तो, यदि हम सभी अंतःकरण की प्रसन्नता चाहते हैं, दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं, तो हमें अपनी कामनाओं एवं आसक्तियों पर नियंत्रण करना सिख लेना चाहिए।

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